Tuesday, June 7, 2011

THE TRUTH OF CENTRAL GOVERNMENT

केंद्र सरकार की मानें तो उसे बाबा रामदेव के खिलाफ कार्रवाई इसलिए करनी पड़ी, क्योंकि उन्होंने अपना वायदा नहीं निभाया। दिल्ली पुलिस की मानें तो रात के अंधेरे में रामलीला मैदान में धावा बोलने की जरूरत इसलिए पड़ी, क्योंकि बाबा रामदेव की सुरक्षा के लिए खतरा पैदा हो गया था। दिग्विजय सिंह की मानें तो बाबा महाठग हैं और वह इसी व्यवहार के काबिल थे। पवन बंसल, सुबोधकांत सहाय और जनार्दन द्विवेदी के वक्तव्यों पर गौर करें तो उनका भी मतलब यह है कि दिल्ली पुलिस ने जो कुछ किया वह बिल्कुल सही था, लेकिन अगर काले धन को वापस लाने के मामले में सरकार और बाबा के बीच सहमति बन गई थी और बाबा ने वायदाखिलाफी की तो उनके समर्थकों को दिल्ली पुलिस की लाठियां क्यों खानी पड़ीं? यदि बाबा ने अपने समर्थकों को ठगा जैसा कि दिग्विजय सिंह और कपिल सिब्बल कह रहे हैं तो ठगी के शिकार लोगों पर लाठियां चलाने का क्या मतलब? बाबा अपने ऊपर लगे आरोपों का जवाब दे रहे हैं, लेकिन वह यह स्पष्ट नहीं कर पा रहे कि क्या उनके और सरकार के बीच कोई समझौता हो गया था? यदि नहीं तो उन्होंने सहमति की चिट्ठी क्यों लिखी और यदि यह दबाव में लिखी गई तो समय रहते उसका खुलासा क्यों नहीं किया गया? पता नहीं, इन सवालों के जवाब सामने आएंगे या नहीं और यदि आएंगे तो वे देश को संतुष्ट कर सकेंगे या नहीं, लेकिन कुछ सवालों के जवाब केंद्र सरकार को भी देने चाहिए। सबसे पहला सवाल यह है कि क्या वायदा निभाना सिर्फ बाबा रामदेव की जिम्मेदारी है? मनमोहन सिंह ने 2004 में केंद्र सरकार की कमान संभालने के बाद स्वेच्छा से यह वायदा किया था कि वह लोकपाल विधेयक पारित कराएंगे, लेकिन वह अपना वायदा भूल गए और जब अन्ना हजारे अनशन पर बैठे तो सरकार ने कहा कि हम मजबूत लोकपाल के लिए तैयार हैं, लेकिन अब वह टालमटोल कर रही है। आखिर यह वायदाखिलाफी नहीं तो ओर क्या है? पिछले वर्ष जब अलीगढ़ में टप्पल के किसान भूमि अधिग्रहण के खिलाफ आक्रोशित हो उठे थे तो खुद प्रधानमंत्री ने वायदा किया कि वे भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन करेंगे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। यह वायदाखिलाफी नहीं तो और क्या है? यह सही है कि संसद का शीतकालीन सत्र हंगामे की भेंट चढ़ गया, लेकिन एक तो इस हंगामे के लिए कांग्रेस ही जिम्मेदार थी और दूसरे सब जानते हैं कि बजट सत्र खत्म हो गया और सरकार को भूमि अधिग्रहण कानून की याद तक नहीं आई। भूमि अधिग्रहण कानून पर वायदाखिलाफी की केंद्र सरकार ने और लाठी-गोली खाई भट्टा-पारसौल के किसानों ने। कुछ समय पहले हरियाणा-उत्तर प्रदेश के जाट नेता अपने समर्थकों के साथ रेल ट्रैक पर इसलिए जा बैठे थे कि केंद्र सरकार ने आरक्षण की उनकी मांग के सिलसिले में वायदाखिलाफी की है। वायदाखिलाफी की सरकार ने और सजा भुगती लाखों रेलयात्रियों ने यहां तक कि खुद रेल मंत्रालय ने। जाट नेता उत्तर प्रदेश में करीब 15 दिन और हरियाणा में लगभग एक महीने रेल ट्रैक पर बैठे रहे, लेकिन किसी को कानून एवं व्यवस्था के समक्ष संकट नहीं दिखा। यूपी में तो केंद्र सरकार का वश नहीं चल सकता था, लेकिन वह हरियाणा में अपने दल द्वारा शासित सरकार के समक्ष भी असहाय बनी रही। इसी केंद्र सरकार को रामलीला मैदान में जुटे बाबा रामदेव के समर्थकों से कानून एवं व्यवस्था के लिए खतरा नजर आने लगा। कालेधन के मामले में पिछले वर्ष मार्च में सरकार की ओर से किसी और ने नहीं खुद प्रधानमंत्री ने संसद में यह कहा था कि बहामास, बरमूडा और स्विट्जरलैंड समेत 20 देशों से संपर्क किया जा रहा है। यदि काले धन के मामले में सरकार वास्तव में गंभीर थी तो फिर बाबा रामदेव के दिल्ली आने के दस दिन पहले दो समितियां और एक महानिदेशालय के गठन की घोषणा का क्या मतलब? यह काम पहले क्यों नहीं किया गया? ऐसा करके किसे मूर्ख बनाया जा रहा था- बाबा को, देश को या अपने आप को? पहले बाबा रामदेव के सामने दंडवत होने और फिर उन्हें दिल्ली से निकालने वाली सरकार को सही ठहराने वाले लोग देश को यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि नियम-कानून बनाना सरकार का काम है, बाबा रामदेव और अन्ना हजारे जैसे लोग यह काम नहीं कर सकते। यह सही तर्क है। सभी को नियम-कानून बनाने का अधिकार नहीं दिया जा सकता, लेकिन आखिर यही तर्क सोनिया गांधी की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद पर क्यों नहीं लागू होता? यह सलाहकार समिति वह काम कर रही है जो संसद को करना चाहिए। इस पर भी गौर किया जाना चाहिए कि यह समिति अपना काम किस तरह कर रही है? हाल ही में उसने सांप्रदायिक हिंसा निषेध विधेयक का मसौदा तैयार किया है। इस मसौदे पर यकीन करें तो सांप्रदायिक हिंसा फैलाने का काम केवल बहुसंख्यक करते हैं और बहुसंख्यकों की हिंसा से पीडि़त लोगों को न्याय देने का काम केवल ऐसा प्राधिकरण कर सकता है जिसके ज्यादातर सदस्य अल्पसंख्यक समाज के हों। इस विधेयक को कानून का रूप देने का मतलब है देश को सांप्रदायिक वैमनस्य के हवाले कर देना। चिंताजनक यह नहीं है कि किसी विधेयक का ऐसा खतरनाक मसौदा बनाया गया, बल्कि यह है कि उसे कानून का रूप देने के बारे में सोचा जा रहा है। जब राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के विद्वान सदस्य ऐसे विनाशकारी विधेयक को कानून बनाने की सलाह दे सकते हैं तो फिर अन्ना हजारे अथवा बाबा रामदेव लोकपाल विधेयक बनाने या कालेधन को खत्म करने के वे तरीके क्यों नहीं सुझा सकते जिन्हें आम जनता भी सही मानती है और इसीलिए वह कभी जंतर-मंतर पर जमा होती है और कभी रामलीला मैदान में। पता नहीं, रामदेव पर उनके समर्थकों का कितना भरोसा शेष है, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि केंद्र सरकार आम लोगों का भरोसा खोने के अलावा और कुछ नहीं कर रही।
स्रोत - दैनिक जागरण 

No comments:

Post a Comment